आपके पास देने को बहुत कुछ है (UPSC Hindi Essey)

आपके पास देने को बहुत कुछ है-

एक पिता भर्त्सनायुक्त होली में अपने पुत्र को समझा रहा था “देखो, किसी से भी लड़ना-झगड़ना ठीक नहीं होता है, आदमी को कड़वे नीम से भी काम पड़ जाता है.”

पिता का उक्त कथन सुनकर मेरी सम्पूर्ण चिन्तन धारा के तार झनझना उठे. नीम से अधिक कडवा क्या, जिसको हम तुरन्त थू-थू करके थूक देते हैं ? परन्तु वही नीम हमको आवश्यकता पड़ने पर कितना उपयोगी प्रतीत होने लगता है! उसकी कोपलें, टहनियाँ, उसकी शाखाएँ तथा उसकी छाल सभी कुछ तो हमारे काम आती हैं. चिन्तन आगे बढ़ता गया और विश्व-ब्रह्माण्ड की झाँकी आँखों के सामने आती गई. यह देखकर सुखद आश्चर्य हुआ कि विश्व का प्रत्येक पदार्थ कुछ न कुछ देने की क्षमता रखता है. दुनियाँ में कोई वस्तु, जीव-जन्तु, लता, पुष्प, वृक्ष आदि ऐसा नहीं है, जो दुनियाँ के किसी काम का न हो. यहाँ तक कि साँप, बिच्छू के विष भी औषधि के रूप में प्रयुक्त किए जाते हैं. बाबा तुलसीदास ने ठीक ही कहा है कि-

जड़ चेतन गुण दोष मय विश्व कीन्ह करतार।

संत हंस पय गुन गहहिं परिहर बारि विकार ।।

यह तो हुई जड़-चेतन से लेने की बात. परन्तु, इसके साथ यह प्रश्न भी तो उत्पन्न होता है कि हम दुनियाँ को क्या दे सकते हैं ? क्या हमारे पास भी ऐसा कुछ है जो हम समाज को दे सकें ? जड़-चेतन की परिधि में तो हम भी आ जाते हैं.

क्या आपने कभी यह सोचा है कि आपके पास देने को बहुत कुछ है ? आप समझते हैं कि आप अकिंचन हैं, आप किसी को क्या दे सकते हैं ? मैं आपको याद दिलाता हूँ कि आपके पास मीठी वाणी है, जिसके द्वारा आप अपने सम्पर्क में आने वालों का मन शीतल एवं शान्त कर सकते हैं तथा दीन-दुखियों को सान्त्वना प्रदान कर सकते हैं. कोयल मीठी वाणी बोलकर सबको प्रसन्न करती है, आप भी मीठे वचन सुनाकर लोगों के हृदय में स्थान प्राप्त कर सकते हैं. इतना ही नहीं, आप भूले-भटकों को राह भी दिखा सकते हैं.

गुह निषाद से अधिक अकिंचन तो आप नहीं होंगे. परन्तु वह भी समाज की सेवा करने में पीछे नहीं था. उसका कहना था कि हम किसी के कपड़े, बर्तन नहीं चुराते हैं-हमारी यही सेवा है. हम यदि किसी की कोई हानि न करें, तो प्रकारान्तर से हम भी समाज की सेवा कर सकते हैं.

भगवान श्री राम बनवासी के रूप में नाव पर बैठ कर गंगा पार हुए थे. केवट ने उनसे उतराई नहीं ली, यह कहकर कि “फिरती बार नाथ जो देवा. सो प्रसाद मैं सिर धर लेवा” मुसीबत में पड़े हुए लोगों का काम यदि हम निःशुल्क करने का नियम बना लें, तो हम समाज को बहुत कुछ दे सकते हैं. आज भी गंगा की रेती में, अनेक व्यक्ति निःशुल्क सेवा करते हुए देखे जा सकते हैं. अनेक मन्दिरों में, गंगा के घाटों पर अनेक व्यक्ति सेवाभाव से झाडू लगाते रहते हैं.

आपने उच्च शिक्षा प्राप्त की है. आपके पड़ौस में अनेक निरक्षर व्यक्ति होंगे. इस संदर्भ में आपके पास देने को विद्या एवं ज्ञान है. आप यदि वर्ष में एक व्यक्ति को साक्षर बना दें, तो भी समाज को आप बहुत कुछ दे देंगे. दो कदम आगे बढ़ने पर यदि आप यह नियम बना लें कि आप प्रतिदिन एक घण्टा नित्य निःशुल्क पढ़ाएँगे, तो आप समाज को कितना ज्ञान-दान कर देंगे ? ज्ञान-दान का फल कितना और क्या हो सकता है. इसके लिए वाल्मीकि और नारद का आख्यान स्मरण कर लेना पर्याप्त होगा. देवर्षि नारद ने दस्यु रत्नाकर को राम राम की दीक्षा दी थी. रत्नाकर इतने जड़ थे कि राम राम का उच्चारण भी ठीक तरह नहीं कर सकते थे. परन्तु उसी के कारण वह आदि कवि की पदवी को प्राप्त हुए. आपके ज्ञान-दान के द्वारा कब किसके हृदय-कपाट खुल जाएँ-कौन कह सकता है ?

प्रत्येक समझदार एवं प्रबुद्ध व्यक्ति अनेक विषयों पर चिन्तन करता है और उनके बारे में अपनी राय रखता है. जहाँ-तहाँ होने वाले छोटे-पूरे विवादों को देखकर हम समझ सकते हैं कि अनेक व्यक्ति विभिन्न विषयों पर काफी गहराई के साथ चिन्तन करते रहते हैं. हमारा विश्वास है कि आप भी ऐसा कुछ करते होंगे. आप यदि अपने विचारों को लेखबद्ध कर दें, तो साहित्य के भण्डार में अभिवृद्धि हो. पण्डितजन का कहना है कि विचारों को लिखित रूप प्रदान करने का नाम ही साहित्य की सर्जना है और इससे समाज को मुख्यतः पाँच लाभ होते हैं-वाणी पावन होती है, व्यक्ति का चिन्तन रचनात्मक होता है, उसका अन्तःकरण पवित्र होता है, साहित्य की उन्नति होती है, तथा भावी सन्तान हेतु सुपथ का निर्माण होता है. इतना ही नहीं, स्वयं लिखने वाले के ज्ञान में भी वृद्धि होती = है तथा उदारता, परोपकार जैसी उदात्त वृत्तियों का विकास होता है, आपकी आर्थिक स्थिति यदि अच्छी है, तो आप धन-दान द्वारा अनेक लोगों का भला कर सकते हैं, अनेक समाजोपयोगी कार्य कर सकते हैं. अनेक चिकित्सालय, धर्मशालाएँ, कुए, विद्यालय, छात्रावास, आदि उदारमना धन-दाताओं की ‘कुछ देनें’ की वृत्ति के ही तो सुफल हैं.

कहने का तात्पर्य यह है कि आप अपने स्वरूप का स्मरण करें. आप देखेंगे कि आपके पास देने को बहुत कुछ है. तन, मन एवं धन तीनों के माध्यम से आप समाज को बहुत कुछ लाभ पहुँचा सकते हैं. समाज को देने वालों के स्मारक उनके यश, कीर्ति के रूप में स्थाई बने रहते हैं. यही देवत्व है. आप समाज को अपना कुछ भी दीजिए, आप देवत्व की ओर एक पग आगे बढ़ जाएँगे. वैसे भी प्रकृति का यह नियम है कि उसमें कहीं भी रिक्तता के लिए स्थान नहीं है. आप जैसे ही कुछ देते हैं, यानी अपना कोई कोना खाली करते हैं, वैसे ही प्रकृति की सम्पत्ति उस रिक्त स्थान को भरने के लिए सक्रिय हो जाती है. अनुसारी परिणाम यह होगा कि आप जो और जैसा देंगे, वैसा ही और उतना ही प्रकृति आपको दे देगी साथ ही प्रकृत एवं परिष्कृत रूप में. कवि की वाणी प्रमाण है :

रितु बसंत जाचक भया हरषि दिया दुम पात।

ताते नव पल्लव भया, दिया दूर नहीं जात्।।

अपना कुछ समय, श्रम, धन, ज्ञान आदि देने का ही नाम परोपकार है, परोपकार की महिमा अपार है. जो परोपकार में रत है, उसी का अभ्युदय होता है. गोस्वामी तुलसीदास ने परहित को मानव का सर्वोपरि धर्म बताया है-‘परहित सरिस धर्म नहीं भाई’। वेद का यह वाक्य सतत् मनन करने योग्य है-द्युलोक में स्थित सूर्य अपना प्रकाश व ताप सर्वत्र पहुँचाता है और सबका प्यार पाता है-इसी तरह विद्वान अपने ज्ञान रूपी प्रकाश को विकीर्ण करता हुआ भला लगता है.

प्रत्येक व्यक्ति तीन ऋण लेकर जन्म लेता है-पितृ ऋण, देव ऋण और ऋषि ऋण, इनको चुकाना ही मानव-जीवन का सर्वोपरि धर्म कहा गया है. ऋषियों का कथन है कि जो सबके लिए कर्म करता है, उस पर कोई ऋण नहीं चढ़ता है. (ऋग्वेद 8/35/16) जो व्यक्ति अपने मन को परोपकार में लगाता है, वही मानव- : जाति का भूषण बनता है. हमारा मन तभी तक हमारा भूषण है, जब तक वह हमको कुछ देते रहने की प्रेरणा प्रदान करता रहता है.

हम आपको आश्वस्त करते हैं कि आपके पास देने को बहुत कुछ है. आप पूर्ण मनोयोग पूर्वक विचार कीजिए कि आपके पास देने के लिए कौन-कौन सी वस्तुएँ हैं?

Leave a Comment