प्राचीन भारत की मूर्तिकला (Sculpture in Ancient India)
प्राचीन भारत में मूर्तिकला की चार प्रमुख शैलियों का विकास हुआा-
- गान्धार कला
- मथुरा कला
- सारनाथ को कला
- दक्षिण भारतीय मूर्तिकला
(I) गान्धार कला (Gandhar Art)
कुशान वंश के सम्राट ‘कनिष्क’ के शासन काल में भारत में गान्धार कला का विकास हुआ । यह कला ईरानी यूनानी तथा भारतीय कला के सम्मिश्रण से निमित हुई थी। इसीलिये इसे इण्डो ग्रोक कला, ग्रीको बुद्धिस्ट कला तथा इण्डो रोमन कला भी कहते हैं। इस कला की मूतियाँ गान्धार, अफगानिस्तान, तक्ष- शिला, चीन, कोरिया, जापान, मंगोलिया आदि में बनाई गयीं। इस कला के अन्तर्गत, महात्मा बुद्ध की वे शविहीन सिर तथा आभूषणहीन शरीर वाली मूतियाँ बनाई गयीं। गान्धार कला में शरीर की बनावट, मूँछे, नसे आदि बड़ी स्पष्ट रूप से दर्शायी गई हैं और सिर के चारो ओर प्रभा मण्डल भी बनाया गया है।
विशेषताएँ – गान्धार कला की कुछ ऐसी असाधारण विशेषतायें हैं, जिससे वह भारत को अन्य कला शैलियों में शीघ्र ही पहचानी जा सकती है। इसकी कुछ प्रमुख विशेषतायें निम्नलिखित हैं-
(i) इस कला में मानव शरीर को वास्तविक ढंग से सुन्दरतापूर्वक अंकित किया गया है और अंगों- प्रत्यंगों और विशेषकर मांसपेशियों तथा मूछों आदि को सूक्ष्मता के साथ प्रर्दाशत किया गया है।
(ii) इस कला में परिधानों की शैली निराली है। मोटे वस्त्रों का प्रदर्शन करते समय वस्त्रों की सलवटें बड़ी सूक्ष्मता के साथ दिखाई गई हैं।
(iii) इस कला में महात्मा बुद्ध की प्रतिमायें, यूनानी देवता अपोलो की भाँति बनाई गई हैं।
(iv) इस कला शैली में अनुपम नक्काशी विस्तृत अलंकरण और जटिलता का समावेश है।
गान्धार कला की पत्थर की मूतियाँ-पेशावर, तक्षशिला, लाहौर तथा काबुल आदि के संग्रहालयों में सुरक्षित है।
(II) मथुरा कला (Mathura Art)
शक कुषाण युग में मूर्तिकला का दूसरा प्रमुख केन्द्र मथुरा नगर बौर उसके आस-पास का क्षेत्र था। मयुरा के कलाकारों ने शुगकाल में विशाल यक्ष मूतियों का निर्माण किया । मथुरा कला की प्रारम्भिक वुद्ध मूतियाँ इन मूतियों से मिलती-जुलती है। इन मूर्तियों में मथुरा सारनाब बौर श्रावस्ती में मित्री गहात्मा बुद्ध की मूतियाँ प्रमुख हैं।
मथुरा कला की मूर्तियाँ लाल पत्थर की बनी हुई हैं। इनमें महात्मा बुद्ध को खड़े दिखाया गया है और उनका शरीर वस्त्रों से ढका हुआ है। वस्त्रों की सलवटें स्पष्ट दिखाई गई हैं। सांची, भरहुत, बोध गया, सारनाथ में मिली मूर्तियों में बोधिवृक्ष, धर्म चक्र, स्तूप बासन, भिक्षा पात्र आदि का पूजन दिखाया गया है।
गुप्त काल में ब्रह्मा, शिव, विष्णु, कृष्ण, बलराम, कातिकेय, गणेश, इन्द्र, अग्नि, नवग्रह, सूर्य, कामदेव, एम, हनुमान, लक्ष्मी, सरस्वती, दुर्गा, गंगा-यमुना बादि देवी, देवताबों की मूतियाँ बनीं । मथुरा कला में
मूर्तियों के भी नमूने मिले हैं। विशेवतायें – मथुरा कला की प्रमुख विशेषतायें निम्नलिखित हैं-
(i) इस कला शैली में ‘महात्मा बुद्ध को पूर्णतया ‘भारतीय रूप’ में प्रस्तुत किया गया है।
(ii) इस कला की मूतियों में मांसपेशियों’ व ‘वस्त्रों का प्रदर्शन’ सूरुभ रूप में किया गया है।
(iii) इन पूतियों में शारीरिक सोन्दय’ की अपेक्षा आध्यात्मिक भावों की प्रधानता है।
(iv) महात्मा बुद्ध की मूर्तियाँ शान्ति , करुणा तथा सहानुभूति की प्रतीक हैं।
(v) इस कला की सभी मूतियाँ लाल बलुए पत्थर की बनायी गई हैं।
(III) सारनाथ कला (Art of Sarnath)
सारनाथ में बौद्ध तथा हिन्दू धर्म की मूर्तियाँ विशेष रूप से यहाँ को भगवान बुद्ध की मूर्तियों में धर्मचक्र प्रमुख रूप से प्रदर्शित किया गया है। सारनाथ की बुद्ध की बैठी मूर्ति विशेष सुन्दर हैं। सारनाथ कला की अनेक पूनियाँ कलकता संप्रहालय में सुरक्षित हैं। महात्मा की ताँबे की खड़ी हुई मूर्ति जो ‘सुल्तान गंज’ (भागलपुर) में मिली थी, आज भी इंगलैण्ड के ‘नरसिंघम’ संग्रहालय में रखी हुई है।
(IV) दक्षिण भारतीय मूर्तिकला (South Indian Scupture)
दक्षिणी भारत में ‘पल्लव’ राजवंश के काल में मूर्तिकला को चार शैलियों का विकास हुआ। ‘महेन्द्र शैली’ में ‘अर्काट’ जिले में एक गुहा मन्दिर’ बनाया गया । एकाम्बर नाथ का मन्दिर व कुछ जैन मन्दिर इस शैली के उदाहरण हैं। ‘मामल्ल शैली’ में राजा नरसिंह वर्मन, ने त्रिमूति बराह व दुर्गा की मूतियाँ तथा पांच पाण्डव के रथ आदि की मूर्तियाँ बनवायीं। इस शैली के अन्य नमूने सिह विष्णु महेन्द्र वर्मन व उनकी रानियों की मूर्तियां हैं।
राजसिह शैली’ के सुन्दर नमूने ‘कांची’ का ‘कैलाश मन्दिर’ व ‘महाबलिपुरम्’ के अनेक मंदिर मूतियाँ हैं। ‘अपराजित शैली’ में पल्लव ‘राजा अपराजित वर्मन’ ने पांडिचेरी के निकट ‘बेलूर’ में अनेकमन्दिरों व मूर्तियों का निर्माण कराया।
चोल राजा ‘राज-राज प्रथम’ ने ‘तंजौर’ में ‘राज राजेश्वर’ का एक 13 मंजिला मन्दिर बनवाया, जो आज भी दर्शनीय है। इस प्रकार दक्षिण भारत में चालुक्य, चोल व पल्लव राजाओं के काल में मूर्तिकला का भारी विकास हुआ ।