विकासशील देशों की विशेषताएं (Characteristics Of Developing Countries)

विकासशील देशों की विशेषताएं (Characteristics Of Developing Countries)

“विकासशील देशों की गणना उन देशों में की जाती है जिनकी प्रति व्यक्ति वास्तविक य अमेरिका, कनाडा, आस्ट्रेलिया व पश्चिमी यूरोप की प्रति व्यक्ति वास्तविक आय से कम पायी जाती है ।”- संयुक्त राष्ट्र संघ की विशेषज्ञ समिति की एक रिपोर्ट

पिछले अलेखों में हम पढ़ चुके हैं कि आर्थिक विकास की दृष्टि से संसार के देश तीन वर्गों में बँटे हुए हैं- विकसित देश, विकासशील देश और निर्धन देश । आज संसार में लगभग 4 अरब व्यक्ति रहते हैं, जिनमें केवल 20 प्रतिशत व्यक्ति ही विकसित देशों में निवास करते हैं। इनमें 2 अरब व्यक्ति निर्धनता के स्तर पर जीवन यापन करते हैं।

सन 1974 में संयुक्त राष्ट्र संघ की आर्थिक समिति की रिपोर्ट के अनुसार आज संसार में 135 देशों में से केवल 26 देश थे जिनको प्रति व्यक्ति आय 175 डालर से कम थी, ऐसे देशों को संसार की कुल बायका 27 प्रतिशत प्राप्त था तथा इनमें संसार की कुल जनसंख्या का 2006 प्रतिशत भाग निवास करता था। दूसरी ओर 5600 डालर या इससे अधिक प्रति व्यक्ति वास्तविक आय वाले देशों की संख्या 11 थी, जिन्हें संसार की कुल आय का 3607 प्रतिशत तथा जनसंख्या का 86 प्रतिशत भाग प्राप्त था । इन आंकड़ों से पता चलता है कि संसार के विभिन्न देशों में आय सम्बन्धी भारी भिन्नता पायी जाती है। कायिक विकास की दर की मित्रता ने इस अन्तर को और भी अधिक बढ़ा दिया है।

उदाहरण के लिए एक और संयुक्त राज्य अमेरिका में प्रति व्यक्ति आय ६ हजार डालर के लगभग है, जब कि दूसरी ओर बो एशिया, मध्यपूर्व तथा लेटिन अमेरिका के अनेक देशों से यह 300 डालर प्रति व्यक्ति से भी नीची है। इतना ही नहीं पिछले कुछ वर्षों तक नाइजीरिया, भारत, बर्मा, इण्डोनेशिया, अफगानिस्तान आदि देश तो 100 डालर प्रति व्यक्ति से नीचे वाले निम्न वर्ग से आते रहे हैं। इस प्रकार संसार के विभिन्न देश प्रति व्यक्ति आय की दृष्टि से विभिन्न आयु समूहों में बंटे हुए हैं।

विकासशील देश (Developing Countries)

विकासशील देशों को प्राय: अल्प विकसित और अविकसित देश भी कहा जाता है। आजकल मध्य एशिया, दक्षिणी-पूर्वी एशिया के कुछ देश, पश्चिमी एशिया के कुछ देश, अफ्रीकी देशों और लेटिन अमेरिका के अनेक देशों को विकासशील देशों की श्रेणी में रखा गया है।

विकासशील देशों का ब्राशय ऐसे देशों से हैं, जिनकी प्रति व्यक्ति वास्तविक आय संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा, आस्ट्रेलिया व पश्चिमी यूरोप की प्रति व्यक्ति वास्तविक आय से कम पायी जाती है। जेकब वाइनर ने विकासशील देश उसे बताया है जिसके लिए अधिक पूंजी अथवा अधिक श्रम अपवा अधिक उपलब्ध प्राकृतिक साधनों का अथवा इन सभी का उपयोग करने के लिये काफी अच्छी भावी सम्भावनाएँ होती है ताकि यह अपनी वर्तमान जनसंख्या को अपेक्षाकृत ऊंचे स्तर पर बनाये रख सकता है अथवा यदि इसकी प्रति व्यविश आप पहले से ही काफी ऊँभी होती है तो यह बाज से अधिक जनसंख्या को उतने ही जीवन स्तर पर कायम रख सकता है।

विकासशील देशों के जनजीवन की विशेषतायें (Characteristics of the Human Life in Developing Countries)

विकासशील देशों के जनजीवन की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित है-

(1) कृषि और लघु उद्योग-धन्धों की प्रधानता – विकासशील देशों में श्रम शक्ति का एक बड़ा भाग कृषि में संलग्न रहता है और राष्ट्रीय आय का काफी बड़ा अंश कृषि व लघु उद्योग-धन्धों से प्राप्तहोता है। कुछ निर्धन देश तो खनिज पदार्थों पर ही विशेष रूप से निर्भर रहते हैं। संसार में मँगानीज, टिन, अल्य- मूनियम तांबा, हीरा, कोनियम, टंगस्टन, पेट्रोल के उत्पादन का एक बड़ा भाग निर्धन देशों से हो प्राप्त होता है। अनेक विकासशील देश खनिज सम्पदा का निर्यात करके ही काफी विदेशी मुद्रा अर्जित करते हैं। अधिकांश विकासशील देशों में बड़े पैमाने के

आधुनिक उद्योगों का अभाव पाया जाता है। इनमें लघु व कुटीर उद्योग धन्धों में काफी लोग लगे रहते हैं। कृषि पदार्थों के परिनिर्माण, कृषि योग्य औजारों का उत्पादन, सूती वस्त्र उद्योग तथा अन्य लघु उद्योग ही उनके औद्योगिक जीवन का प्रमुख अंग होते हैं । कृषि की प्रधानता के साथ ही साथ विकासशील देशों में कृषि की उत्पादकता का स्तर नीचा होता है।

इसके लिए अनेक तत्व उत्तरदायी हैं, जैसे कृषि का पिछड़ापन, भूमि स्वामित्व की दोषपूर्ण प्रणाली, सिचाई के साधनों का अभाव, खेतों का उपविभाजन और विखण्डन, कृषि में तकनीकी परिवर्तन का अभाव, कृषि उपज बिक्री के दोष, वित्तीय संकट आदि । जनाधिक्य या अधिक जनसंख्या वाले विकासशील देशों में भूमि पर जन भार अधिक होता है और प्रति कृषक पूंजी की मात्रा बहुत कम होती है। अतः इन देशों में कृषि की पद्धति अकार्य कुशल होती है।

कृषि के समान उद्योगों में भी विकासशील देश पिछड़े हुए हैं। श्रम समस्या, पूँजी का अभाव, तकनीकी ज्ञान व प्रशिक्षण की कमी आदि अनेक तत्व उद्योगों के पिछड़ेपन के लिए उत्तरदायी हैं ।

(2) कम उत्पादक धंधे – विकासशील देशों में कृषि के बाद अधिकांश लोग अपने परम्परागत या साधारण उद्योगों में संलग्न रहते हैं । इन उद्योगों की उत्पादकता बहुत कम होती है। इनसे व्यक्ति केवल अपनी जीविका ही चला सकता है, अपने जीवन स्तर को वह ऊंचा नहीं उठा पाता है ।

(3) प्राकृतिक साधनों का कम उपयोग- विकास- शील देशों में उपयुक्त प्राकृतिक साधन पाये जाते हैं, अर्थात इन देशों में प्राकृतिक या आर्थिक साधनों का समुचित उपयोग नहीं हो पाता है । इन देशों को आवश्यक जांच- पड़ताल के अभाव में प्राकृतिक साधनों की पूरी जानकारी भी नहीं होती है और ये जानकारी के अभाव में बेकार बड़े रहते हैं। उदाहरण के लिए तकनीकी ज्ञान के अभाव व सामाजिक पिछड़ेपन के कारण इन देशों में कृषि योग्य भूमि बेकार पड़ी रह सकती है और निज सम्पदा के महार बिना काम में लिये पड़े रह सकते हैं। इस प्रकार इन देशों में प्राकृतिक साधनों के सदुपयोग करने की समस्या प्रमुख होती है।

(4) पूँजी का अभाव – विकासशील देशों में प्रति व्यक्ति पूंजी की उपलब्धि बहुत कम होती है। ऐसी स्थिति कृषि, उद्योग, यातायात आदि सभी क्षेत्रों में देखी जा सकती है। इन देशों में प्रति व्यक्ति बिजली का उपयोग भी बहुत कम किया जाता है। आर्थिक विकास के लिए पूंजी एक आवश्यक तत्व है अतः पूंजी के अभाव के कारण इन देशों में सड़क, रेल, और संवाद के साधनों का भी समुचित विकास नहीं हो पाता है। इन देशों में पूंजी के अभाव के लिए अनेक तत्व उत्तरदायी हैं जिनमें प्रति व्यक्ति नोची आय धनी वर्ग में बिलासी उपयोग, ज्ञानशौकत व प्रदर्शन का प्रभाव आदि प्रमुख हैं। इन देशों में लोग अपनी बचत सट्टेबाजी, संग्रह, भूमि व अन्य अचल सम्पत्ति खरीदने जैसी अनुत्पादक दिशाओं में करना अधिक पसन्द करते हैं। यही कारण है कि विकासशील देशों में आन्तरिक बचत राष्ट्रीय बाय का काफी निम्न मंत में होती है । इसीलिए इन देशों को अपने आर्थिक विकास के लिए विदेशों से सहायता लेनी पड़ती है और अपनी पूंजी के विनियोग में वृद्धि करने के लिए इन्हें विदेशी साधनों पर निर्भर रहना पड़ता है।

इस प्रकार विकासशील देशों की एक प्रमुख विशेषता पूंजी का अभाव है जिससे ये देश गरीबों के दुष्चक में फंसे रहते हैं और अपना समुचित आर्थिक विकास नहीं कर पाते हैं।

(5) जनसंख्या की समस्या — विकासशील देशों में जनसंख्या की वार्षिक वृद्धि दर विकसित देशों से ऊँची पायी जाती है। सन् 1960-1966 की अवधि में विकसित देशों में जनसंख्या की वार्षिक वृद्धि दर 12 प्रतिशत थी, जब कि विकासशील देशों में यह 25 प्रतिशत थी। वर्तमान समय में तो यह दर और भी अधिक बढ़ गई है। इस प्रकार विकासशील देशों में अधिक विकास से पहले ही ‘जनसंख्या विस्फोट’ की अवस्था आ जाती है जिससे रोजवार, प्रति व्यक्ति आय तथा वस्तुओं के मूल्यों पर विपरीत प्रभाव पड़ते हैं ।

(6) सामाजिक पिछड़ापन — विकासशील देशों में लोगों की कार्य चलता कम होती है। म गतिशील नहीं होता और विशिष्टीकरण बहुत कम मात्रा में पाया जाता है। उद्यम का बनाव और सामाजिक पिछड़ापन भी विकासशील देशों की एक प्रमुख विशेषता मानी जाती है। निरक्षता, बन्ध विश्वास, कुपोषण, निर्धनता आदि यहाँ के जनजीवन में भरपूर मात्रा में पाये जाते हैं। इन देशों को अधिकांश जनता बालसी और अच्छे जीवन स्तर के प्रति उदासीन रहती है। लोगों पर धर्म, संस्कृति, परम्परा, सामाजिक प्रथा तथा पिछड़े हुए दृष्टिकोणों का अधिक प्रभाव देखने को मिलता है। जाति प्रथा, ग्रामीण वात्म-निर्भरता, संयुक्त परिवार प्रणाली व समाज में स्त्रियों का निम्न स्थान इन देशों के जनजीवन को प्रमुख विशेषतायें हैं जिनसे बम गतिशीलता में बाधा उत्पन्न होती हैं। समाज में परिवर्तन बिरोधी वातावरण, लोबों की पढ़िवादिता के कारण नये अनुसंधान व वैज्ञानिक आविष्कारों के प्रति लोगों में उत्साह नहीं पाया जाता है । सामाजिक मतभेद व संघर्ष भी इन देशों में आर्थिक विकास को पनपने नहीं देते हैं।

(7) अभ्य विशेषतायें – विकासशील देशों में कुछ ऐसी कमियाँ व दोष भी पाये जाते हैं जो कि उनके वार्षिक विकास में बाधक होते हैं। इनमें उदार शासन प्रणाली, कानूनों की कठोरता का अभाव, भ्रष्टाकार तथा बनेक प्रकार की सामाजिक बुराइयां प्रमुख हैं।

विकासशील देशों के विकास के विभिन्न मार्ग (Different Ways of Development in Developing Countries)

विकासशील देशों की विशेषताओं का अध्ययन करने से हमें पता चलता है कि इन देशों में कई प्रकार के दोष, कमियाँ व अपर्याप्ततायें पायी जाती है और इनके ही आगिक विकास के मार्ग में काफी रोड़े भी पाये जाते हैं । अतः इन देशों को आर्थिक विकास द्वारा अपने देशवासियों का जीवन-स्तर ऊँला करने के लिए कई दिशाओं में कार्य करना होगा।

वास्तविकता तो यह है कि राजनीतिक, प्रशासनिक, सामाजिक, संस्थागत, शैक्षिक, सांस्कृतिक और आर्थिक सभी क्षेत्रों में आमूल-चूल परिवर्तन करके ही विकासशील देश अपनी आर्थिक समृद्धि के लक्ष्य को पूरा कर सकते हैं । संक्षेप में विकासशील देश निम्न मार्गों का अनुसरण कर के अपना सर्वांगीण विकास करने में सफल हो सकते हैं-

(1) विकसित देशों से सम्बन्ध- विकासशील देश संसार के विकसित देशों से मंत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित करके अपना समुचित आर्थिक विकास कर सकते हैं। वर्तमान युग मे कृषि, उद्योग, ज्ञान, विज्ञान, तकनीक, आर्थिक प्रगति व सांस्कृतिक क्षेत्र में विकसित देश काफी बड़े-बड़े हैं। विकासशील देश अपनी उपलब्धियों का लाभ उठाकर अपने आर्थिक विकास के पथ को सरल बना सकते हैं।

(2) क्षेत्रीय सहयोग का प्रयास — विकासशील देशों को अपनी प्रगति लिये विकसित देशों पर निर्भर नहीं रहना चाहिये। उन्हें क्षेत्रीय सहयोग भी प्राप्त करना चाहिए क्योंकि क्षेत्रीय सहयोग के अभाव में आर्थिक विकास के कार्यक्रम कभी पूरे नहीं हो सकते हैं। अत: सहकारिता, सामुदायिक विकास योजनाओं वादि के द्वारा क्षेत्रीय सहयोग प्राप्त करके उन्हें अपना सर्वांगीण विकास करना होगा ।

(3) विदेशी व्यापार – अनेक विकासशील देश निर्यातों पर आश्रित रहते हैं। लेकिन एक-दो वस्तुओं के निर्यातों पर निर्भर रहना बहुत खतरनाक सिद्ध हो सकता है, क्योंकि आयात करने वाले देशों में तेजी-मन्दी का प्रभाव विकासशील निर्यात करने वाले देशों पर पड़ने लगता है, जिससे इनकी अर्थव्यवस्था डगमगा जाती है। कई बार विदेशी फर्म निर्यात उद्योगों पर एकाधिकारी प्रभाव जमा लेती है, जिससे राजनीतिक प्रभुत्व की आशंका बढ़ जाती है।

इसलिए विकासशील देशों को चाहिये कि वे विदेशी व्यापार में आयात व निर्यात को समान रूप से महत्व दें और आवश्यक अनुपात बनाये रखें। वे विदेशी व्यापार के माध्यम से विकसित देशों से आवश्यक कच्चा माल, मशीनें, वैज्ञानिक यन्त्र, दैनिक उपयोग की वस्तुयें प्राप्त कर सकते हैं और अपने यहां के तैयार माल व फालतू कच्चे माल तथा कृषि पदार्थों का निर्यात करके विदेशी मुद्रा अर्जित कर सकते हैं । इतना ही नहीं विकसित देशों से वे पर्याप्त आर्थिक, तकनीकी और वैज्ञानिक ज्ञान भी प्राप्त करके अपने आर्थिक व सामाजिक जीवन को समृद्ध व सुखमय बना सकते हैं।

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