दिल्ली नगर निगम (संशोधन) अधिनियम, 2022 (Delhi Municipal Corporation Amendment Bill 2022)
Delhi Municipal Corporation Amendment Bill 2022: हाल ही में भारत के राष्ट्रपति ने संसद से पारित ‘दिल्ली नगर निगम (संशोधन) विधेयक, 2022’ को अपनी मंजूरी दे दी है।
मुख्य बिंदु
इस अधिनियम का उद्देश्य राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के तीन अलग-अलग नगर निगमों (उत्तर, दक्षिण एवं पूर्वी दिल्ली नगर निगम) का एक नए निगम (दिल्ली नगर निगम) में विलय करना है। इसके अनुसार, दिल्ली में नगर निगमों के एकीकरण से समन्वित और रणनीतिक योजना के साथ संसाधनों का इष्टतम उपयोग सुनिश्चित होगा।
ध्यातव्य है कि दिल्ली नगर निगम के विभाजन का प्रस्ताव सबसे पहली बार वर्ष 1987 में ‘बालाकृष्णन समिति’ की रिपोर्ट में प्रस्तुत किया गया था। वर्ष 2001 में वीरेंद्र प्रकाश समिति की रिपोर्ट में इस प्रस्ताव का समर्थन किया गया।
इन सिफारिशों के अध्ययन एवं कार्यान्वयन पर सुझाव देने के लिये वर्ष 2001 में दिल्ली विधानसभा के एक सात सदस्यीय पैनल की स्थापना की गई। साथ ही, केंद्र सरकार द्वारा भी इस मुद्दे की समीक्षा के लिये एक समिति का गठन किया गया।
इन समितियों की सिफारिशों एवं रिपोटों के अध्ययन के बाद वर्ष 2011 में सरकार ने दिल्ली नगर निगम की कार्यप्रणाली को अधिक प्रभावी बनाने के लिये इसे तीन भागों में बाँटने का प्रस्ताव रखा। गृह मंत्रालय द्वारा नवंबर 2011 में इस प्रस्ताव को मंजूरी दी गई थी।
इस विभाजन के बाद उत्तर और दक्षिण नगर निगम को 104-104 वार्ड जबकि पूर्वी दिल्ली नगर निगम को 64 वार्ड प्रदान किये गए।
प्रस्तावित बदलाव
केंद्र सरकार द्वारा पारित अधिनियम के तहत दिल्ली नगर निगम की सीटों की संख्या को 275 से घटाकर 250 तक सीमित करने का निर्णय लिया गया है।
केंद्र सरकार की शक्तियों में विस्तारः यह अधिनियम केंद्र को एकीकृत MCD की पहली बैठक होने तक एक विशेष अधिकारी नियुक्त करने की अनुमति देता है। अर्थात् जब तक चुनाव संपन्न नहीं हो जाते, केंद्र निगम को चलाने के लिये एक अधिकारी की नियुक्ति कर सकता है। साथ ही, इस अधिनियम में सभी स्थानों पर ‘सरकार’ शब्द को ‘केंद्र सरकार’ के साथ प्रतिस्थापित कर दिया गया है। इसका अर्थ है कि एकीकृत निगम में निर्णय मामलों में दिल्ली सरकार को पूरी तरह से बाहर कर दिया गया है।
वर्ष 2011 के संशोधन ने उन क्षेत्रों को चिह्नित किया जहाँ दिल्ली सरकार के पास निर्णय लेने की शक्ति थी, इनमें निगम में अनुसूचित जातियों के लिये आरक्षित सीटों की संख्या का निर्धारण, निगमों के क्षेत्र का ज़ोनों और वार्डों में विभाजन, वार्डों का परिसीमन, वेतन व भत्ते आदि शामिल थे। परंतु हालिया अधिनियम के तहत इन मामलों के संबंध में सभी शक्तियों को केंद्र सरकार को दे दिया गया है।
विलय की आवश्यकता
MCD के विभाजन के बाद से ही इस प्रक्रिया में भेदभाव के साथ दूरदर्शिता की कमी के आरोप लगते रहे हैं।
संसाधनों का असमान वितरण
दिल्ली की जनसांख्यिकी असमानता के कारण इस विभाजन ने इन निकायों के बीच आर्थिक असमानता को बढ़ा दिया है, उदाहरण के लिये दक्षिण निकाय के तहत अधिकांशतः उच्च आय वर्ग की कॉलोनियों के होने के कारण यहाँ अधिक कर प्राप्त होता है, जबकि अन्य दोनों निकायों को बहुत ही कम राजस्व प्राप्त होता है।
परिणामस्वरूप तीनों निगमों के दायित्वों तथा उपलब्ध संसाधनों में बहुत अधिक अंतर बना हुआ है। वर्तमान में पूर्वी निकाय अपने 60% खर्च के लिये राज्य सरकार की सहायता पर निर्भर है।
राजस्व की चुनौतियों के कारण वेतन में देरी, बोनस और कैशलेस मेडिकल कार्ड के विरोध में सफाई कर्मचारी, चिकित्सा कर्मचारी, स्वास्थ्य कर्मचारी, इंजीनियर, डॉक्टर और नर्स अपनी मांगों को लेकर वर्ष 2015 से अब तक कम-से-कम 50 बार सड़कों पर उतर चुके हैं।
चुनौतियाँ
कुछ विपक्षी दलों ने MCD में राज्य सरकार की शक्तियों को कम करने के कदम का विरोध किया है, गौरतलब है कि संविधान के भाग IXA में विशेष रूप से कहा गया है कि नगरपालिकाओं के प्रतिनिधित्व से संबंधित कानून बनाने का अधिकार राज्य के विधानमंडल के पास होगा।
इन निकायों के विलय के बाद भी कर्मचारियों के बकाया वेतन के भुगतान एवं नगर निगम की कार्यप्रणाली में संरचनात्मक सुधार शीघ्र पूरा करना एक बड़ी चुनौती होगी।
नगर निगम शासन की पृष्ठभूमि
किसी भी देश में नगरपालिका शासन और रणनीतिक शहरी नियोजन का उद्देश्य एक तर्कसंगत संरचना के अनुसार प्रभावी, उत्तरदायी, लोकतांत्रिक, पारदर्शी, जवाबदेह स्थानीय प्रशासन की स्थापना करना है जो कानूनी, वित्तीय, आर्थिक और सेवा को मजबूत करने के साथ स्थानीय निकायों के शासन में नागरिकों की अधिक-से-अधिक भागीदारी को बढ़ावा देने में सहायता करता है।
भारत में नगरपालिका शासन की शुरुआत वर्ष 1687 में मद्रास नगरपालिका के गठन के साथ हुई। उन्नीसवीं सदी के प्रारंभिक भाग में भारत के लगभग सभी नगरों में किसी न किसी रूप में नगरपालिका शासन की शुरुआत हो गई थी।
वर्ष 1882 में भारत के तत्कालीन वायसराय लॉर्ड रिपन ने स्थानीय स्वशासन की नींव रखी। वर्ष 1919 में भारत सरकार द्वारा एक अधिनियम के माध्यम से शहरी क्षेत्रों में लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित सरकार के कार्यक्षेत्र एवं शक्तियों की रूपरेखा तैयार की गई।
वर्ष 1935 में एक दूसरे अधिनियम के तहत स्थानीय सरकार को ज्य या प्रांतीय सरकार के दायरे में ला दिया गया तथा इसे विशिष्ट शक्तियाँ ‘भी प्रदान की गई।
भारतीय संविधान के 74वें संशोधन के माध्यम से शहरी क्षेत्रों में 3 प्रकार के नगर निकायों के गठन का प्रावधान किया गया।
भारत में दस लाख या से अधिक लोगों की आबादी वाले किसी भी महानगर / शहर के विकास के लिये नगर निगम की स्थपना की जाती है।
वर्ष 2011 की जनगणना के तहत शहरी क्षेत्र की परिभाषा को स्पष्ट किया गया है। इसके तहत आने वाले क्षेत्रों को निम्नलिखितअनिवार्यताएँ पूरी करनी होती हैं-
- नगरपालिका, निगम, छावनी बोर्ड या अधिसूचित नगर क्षेत्र समिति आदि वाले सभी स्थान ।
- अन्य सभी स्थान जो निम्नलिखित मानदंडों को पूरा करते हैं:
- न्यूनतम जनसंख्या 5,000;
- कम-से-कम 75% पुरुष कामकाजी आबादी गैर-कृषि कार्यों में संलग्न; और कम-से-कम 400 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी. का जनसंख्या घनत्व ।
नगर निगम का महत्त्व
हाल के वर्षों में देश के शहरी क्षेत्रों की आबादी में हो रही तीव्र वृद्धि के बीच इनका विकास एवं सार्वजनिक सेवाओं की आपूर्ति एक बड़ी चुनौती बनकर उभरी है।
नगरपालिकाएँ शहरी क्षेत्रों में दैनिक जरूरतों के निस्तारण के अलावा इन क्षेत्रों में विकास योजनाओं के नियोजन एवं उनके कार्यान्वयन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।
नगरपालिका प्रणाली शहरी क्षेत्र के लोगों को स्थानीय प्रशासन में प्रत्यक्ष प्रतिनिधित्व प्रदान करने के साथ सरकारी योजनाओं के कार्यान्वयन को पारदर्शी एवं उत्तरदायी बनाने में सहायता करती है।