Sarhul Festival In Hindi (सरहुल त्यौहार)

Sarhul Festival (सरहुल त्यौहार)

प्रकृति पर्व सरहुल, झारखण्ड के आदिवासियों का प्रमुख त्यौहार है। सखुआ के पेड़ पर फूल आते ही सरहुल त्यौहार का आगमन और इसकी तैयारियाँ शुरू हो जाती है।

ये आदिवासी लोग सरहुल के त्यौहार को पूर्वजों के समय से ही मनाते हुए आ रहे हैं। जिसके पीछे एक कहानी जिसे इस लेख में जानेंगे। सखुआ वृक्ष, को साल वृक्ष के नाम से भी जाना जाता है। आदिवासी लोग इस त्यौहार को ‘हादी बोंगा‘ के नाम से मनाते हैं। सरहुल पर्व केवल झारखंड में ही नहीं बल्कि मध्य-पूर्व भारत के राज्य बंगाल, उड़ीसा और मध्य भारत के आदिवासी क्षेत्रों में मनाया जाता है।

सरहुल दो शब्दों से मिलकर बना है, सर+हुल यहाँ सर का अर्थ होता है सर फूल होता है वहीं हुल का अर्थ क्रांति होता है। इस पर्व को झारखण्ड की विभिन्न जनजातियां अलग अलग नाम से मनाते हैं, उरांव जनजाति इसे खुदी पर्व, मुंडा बा पर्व, संथाल जनजाति इसे बाहा पर्व, और खड़िया जनजाति जंकौर पर्व के नाम से मनाते हैं।

सरहुल का त्यौहार हर वर्ष अलग-अलग दिन/महीने में होता है, इस साल 2023 में यह 24 मार्च, दिन शुक्रवार को है।

सरहुल त्यौहार

सरहुल के अन्य नाम फूलों का त्यौहार, खुदी पर्व,  बाहा पर्व, बा पर्व और जंकौर पर्व
मनाने का समय चैत्र माह के शुक्ल पक्ष में
मान्यता 5 विभिन्न रंगों के मुर्गे की बलि
प्रमुख क्षेत्र झारखण्ड, मध्य प्रदेश, ओडिशा, पश्चिम बंगाल
विशेष सम्बन्ध मुण्डा जनजाति

सरहुल कब मनाया जाता है?

सरहुल का त्यौहार रबी की फसल कटने के साथ ही शुरू होता है। इसी कारण इसे नए वर्ष/साल का त्यौहार कहते हैं। इस पर्व को हर वर्ष चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की तृतीया को, चांद दिखाई देने के बाद सरहुल पर्व की शुरुआत होती है और पूर्णिमा के दिन इस पर्व का अंत हो जाता है।

सरहुल त्यौहार क्यों मनाया जाता हैं?

वसन्त ऋतू में जब पेड़ “पतझड़” में अपनी पत्तियाँ गिरा कर टहनियों पर नई-नई पत्तियाँ लाने लगती है, तब सरहुल का पर्व मनाया जाता है।

किसी की पूजा, या परम्परा को करने का एक उद्देश्य होता है. ठीक इसी प्रकार से सरहुल पर्व मनाने के पीछे भी कुछ उद्देश्य है। इस त्यौहार पर गाँवो और शहरों में रहने वाले आदिवासी समूह के लोग सरहूल के खास मौके पर प्रकृति की रक्षा, जल-जंगल और जमीन के साथ-साथ गाँव, राज्य और देश की खुशहाली के लिए पूजा करते हैं। सरहुल पर्व मनाने की एक कहानी महाभारत से जुडी है आइये इस कहानी को जानते हैं।

कथा

यह कथा तब की है जब महाभारत का युद्ध चल रहा था, तब आदिवासियों ने युद्ध में कौरवों का साथ दिया था। इस युद्ध में कई “मुण्डा सरदार” पांडवों के हाथों मारे गए थे। इसीलिए उनके शवों को पहचानने के लिए उनके शरीर पर “साल के वृक्ष” के पत्तों और शाखाओं से ढका गया था।

इस युद्ध में देखा गया की जो शव साल के पत्तों से ढका गया था। वे शव सड़ने से बच गए थे और ठीक थे और जो दूसरे पत्तों या अन्य चीजों से ढके गए थे वे शव सड़ गए थे।

ऐसा माना जाता है की इसके बाद आदिवासियों का विश्वास साल पेड़ों और पत्तों पर बढ़ गया होगा। जो सरहुल पर्व के रूप में जाना गया हो।

सरहुल के दिन कौन से देवी और पेड़ की पूजा की जाती है?

सरहुल के पर्व पर माँ सरना और साल पेड़ की पूजा की जाती है। इस पूजा में गाँव के पाहत सरना स्थल जाकर माँ सरना की पूजा अर्चना करते हैं, गांव से ही चावल, लकड़ी, घड़ा, फूल और मुर्गा आदि जैसी पूजा सामग्री लेकर ढाक बजाते हुए सरना स्थल पहुंचते हैं।

जहाँ पाहन पूरी विधि-विधान से पूजा अर्चना करते हैं माँ सरना को खुश करने के लिए पाँच विभिन्न रंगों के मुर्गो की की बलि भी चढ़ायी जाती है।

मान्यता- मुर्गे को खाने और और सरना माता को चढ़ाने से पर्यावरण, वर्षा व खेती अच्छी होती है। इस पूजा में खेती 1 साल के लिए लोग मन्नत मागते हैं, फिर अगले पूजा में अगले साल के लिए मन्नत मांगते हैं।

नृत्य व पहनावा (Sarhul Dance)

झारखण्ड में प्रचलित है नाची सिवाची, यानी जो नाचेगा वही बजेगा, झारखण्ड के सरहुल पर्व पर मान्यता है की नृत्य ही संस्कृति है, यहां में हर जगह नृत्य उत्सव होता है, जहाँ महिलाएँ सफेद- लाल की साड़ी पहनती हैं। ऐसा इस लिए क्योंकि सफ़ेद रंग शांति, पवित्रता और शालीनता का प्रतीक है। वहीं लाल रंग संघर्ष का प्रतीक है। सरना झण्डा भी सफ़ेद और लाल रंग का ही होता है।

सफ़ेद “सिंगबोंगा” तथा लाल “बुरबोंगा” का प्रतीक माना जाता है, इसीलिए “सरना झण्डा” में सफेद और लाल रंग होता है।

सरहुल त्यौहार कैसे मनाया जाता है?

यह त्यौहार धरती एवं सूर्य के विवाहोत्स्व के रूप में मनाया जाता है। सरहुल कई दिनों तक चलने वाला त्यौहार है, इस त्यौहार में पुजारी और पुजारिन को इस पर्व पर उपवास करना होता है और पाहन लोगों के घरों में जाकर फूल और जल वितरित करते हैं तथा वे स्त्रियों के सिर पर पानी भी छिड़कते हैं। यहाँ पानी छिड़कने का अर्थ यह है पाहन संतान प्राप्ति के लिए महिलाओं को शुभकामनाएं देते हैं। पाहन लोग घड़ों में पानी रखकर बारिश होने की संभावनाओं की भविष्वाणी भी करते है। इस पूजा में सखुआ का फूल, जल, सिंदूर व दूब-घांस चढ़ाया जाता है।

सरहुल मनाने की प्रक्रिया

  • पहला दिन: पहले दिन मछली के अभिषेक किये हुए जल को घर में छिड़का जाता है।
  • दूसरा दिन: दूसरे दिन उपवास रखा जाता है तथा गांव का पुजारी जिसे “पाहन” के नाम से जाना जाता है। हर घर की छत पर “साल के फूल” को रखता है।
  • तीसरा दिन: तीसरे दिन पाहन द्वारा उपवास रखा जाता है तथा “सरना” (पूजा स्थल) पर श्री के फूलों (सखुए के फूल का गुच्छा अर्थात कुंज) की पूजा की जाती है। इसके साथ ही मुर्गे की बलि भी दी जाती है तथा चावल और बलि की मुर्गी का मांस मिलाकर “सुंडी” नामक “खिचड़ी” बनाई जाती है। जिसे प्रसाद के रूप में गांव में वितरण किया जाता है।
  • चौथा दिन: चौथे दिन “गिड़ीवा” नामक स्थान पर सरहुल फूल का विसर्जन किया जाता है।

केकड़े का महत्व

सरहुल पूजा में केकड़ा को ढूढ़ने का पहला रिवाज है, जहां लोग इसे ढूढ़ते हैं। क्योंकि केकड़े का इस पर्व पर विशेष महत्व है। पुजारी जिसे पाहन के नाम से जानते हैं, उपवास रख केकड़ा पकड़ते हैं।

केकड़े को पूजा घर में अरवा धागा से बांधकर टांग दिया जाता है और जब धान की बुआई की जाती है तब इसका चूर्ण बनाकर गोबर में मिलाकर धान के साथ बोआ जाता है। ऐसा मान्यता है की जिस तरह केकड़े के असंख्य बच्चे होते हैं, उसी तरह धान की बालियाँ भी असंख्य होंगी।

झारखण्ड के बारे में

झारखण्ड भारत का एक राज्य है। इसकी सीमाएँ पूर्व में पश्चिम बंगाल, पश्चिम में उत्तर प्रदेश एवं छत्तीसगढ़, जबकि उत्तर में बिहार, और दक्षिण दिशा में ओड़िशा को छूती हैं। झारखंड राज्य का स्थापना 15 नवंबर साल 2000 को छोटानागपुर क्षेत्र को बिहार के दक्षिणी हिस्से से अलग किया गया था जिसे बाद में झारखंड के नाम से जाना गया।

  • जल प्रपात: हुंडरू (सुवर्णरेखा नदी), जोन्हा, दशम, पंच गघ फाल, हिरनी, सिला
  • बांध: कोनार बाँध, मैथन बांध, तिलैया बाँध
  • नृत्य: अग्नि नृत्य, झूमर नृत्य, पाइका नृत्य, छो नृत्य, संथाल नृत्य

निष्कर्ष (Conclusion)

इस लेख के माध्यम से मैंने आपको सरहुल के त्यौहार के बारे में जानकारी दी है, इस लेख में मैंने इस त्यौहार को मनाने की कथा और इसे कहाँ मनाया जाता है आदि की जानकारी विस्तृत में दी है।

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