चर्चा में क्यों?
भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण (ASI) के पटना सर्कल ने बिहार नालंदा जिले में विश्व धरोहर स्थल ‘नालंदा महाविहार’ के परिसर में सराय टीला के पास भूनिर्माण गतिविधियों के दौरान 1,200 साल पुराने दो लघु वोटिव स्तूपों (Miniature Votive Stupas) की खोज की है।
स्तूप के बारे में
स्तूप एक अर्द्ध-गोलीय संरचना है जो बुद्ध के शवाधान टीले का प्रतीक है। यह बौद्ध धर्म के आगमन के बाद प्रमुखता से बड़ा और अशोक के शासनकाल के दौरान चरम पर पहुँच गया।
स्तूप तिब्बत में चोटेन (Chorten) और पूर्वी एशिया में पैगोडा के रूप में विकसित हुए। पुरातत्त्वविदों के अनुसार ये स्तूप लगभग 1,200 वर्ष पुराने होंगे।
नालंदा महाविहार स्थल परिसर
नालंदा मगध (आधुनिक बिहार) के प्राचीन साम्राज्य में एक बड़ा बौद्ध मठ था। इस महाविहार स्थल को यूनेस्को द्वारा विश्व धरोहर स्थल का दर्जा प्राप्त है।
उल्लेखनीय है कि ‘नालंदा महाविहार स्थल’ में तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व से 13वीं शताब्दी ई. तक के एक मठवासी एवं शैक्षिक संस्थान के पुरातात्त्विक अवशेष शामिल हैं।
- इसमें स्तूप, मंदिर, विहार (आवासीय एवं शैक्षिक भवन) तथा प्लास्टर, पत्थर एवं धातु में महत्त्वपूर्ण कलाकृतियाँ शामिल हैं।
यह गुप्त वंश, कन्नौज के हर्ष और पाल वंश के अधीन समृद्ध हुआ था और इसके निर्माण में कई भारतीय एवं अन्य संरक्षकों (बौद्ध एवं गैर-बौद्ध) द्वारा सहयोग किया गया था।
इसे इतिहासकारों द्वारा दुनिया का सबसे पहला आवासीय विश्वविद्यालय और प्राचीन दुनिया में सीखने के सबसे बड़े केंद्रों में से एक माना जाता है। यह 800 वर्षों की निर्वाध अवधि में ज्ञान के संगठित प्रसारण का एक केंद्र था।
यह महायान बौद्ध धर्म के शिक्षण का प्रमुख केंद्र था लेकिन अन्य विषयों की भी शिक्षा वहाँ दी जाती थी। इसे बख्तियार खिलजी ने 12वीं शताब्दी में नष्ट कर दिया था।
माना जाता है कि नालंदा में गौतम बुद्ध और महावीर रुके थे। नालंदा के अन्य प्रसिद्ध विद्वान थे- नागार्जुन, धर्मपाल, दिननाग, जिनमित्र संतरक्षिता आदि।
ह्वेनसांग और इत्सिंग जैसे तीर्थयात्री भिक्षुओं ने भी इस महाविहार स्थल की यात्रा की थी।
वोटिव (Votive) स्तूप क्या है?
यह स्तूप का ही एक रूप है इसे अपने विशिष्ट गुंबददार ड्रम के साथ आठ बेलनाकार संरचनाओं में दर्शाया जाता है जिसमें बुद्ध के अवशेष उनके महापरिनिर्वाण के बाद रखे गए थे।
संकल्प पूरा होने पर वोटिव स्तूप चढ़ाए जाते थे। भारत में 7वीं शताब्दी ई. की शुरुआत में, लघु टेराकोटा स्तूप संकल्प के प्रसाद के रूप में लोकप्रिय हो गए।
स्तूप का महत्त्व
धार्मिक महत्त्वः प्रारंभ में बुद्ध के अवशेषों और अवशेषों की पूजा एवं सुरक्षा के लिये स्तूपों का निर्माण किया गया था। बाद में मठों (विहारों) के साथ, स्तूपों को चैत्यों में शामिल किया गया, जो एक प्रार्थना कक्ष है। इसके चारों ओर एक परिक्रमा पथ भी होता है जो बीद्ध अनुष्ठान के लिये महत्त्वपूर्ण है। ऐसा माना जाता है कि बुद्ध के शरीर के अवशेषों को स्तूपों के भीतर दफनाया गया था।
दार्शनिक महत्त्व: यह ध्यान के लिये एक महत्त्वपूर्ण स्थान है। तिब्बती परंपरा में बुद्ध के जीवन की घटनाओं का उत्सव मनाने के लिये स्तूपों का निर्माण किया गया था।
सांकेतिक महत्त्व: ये स्तूप बुद्ध की शिक्षाओं और विचारधारा को समाहित करते हैं। सारनाथ में धामेक स्तूप उस स्थान को चिह्नित करता है जहाँ बुद्ध ने ज्ञान प्राप्त करने के बाद अपना पहला उपदेश दिया था।
ऐतिहासिक महत्त्व: भारत पर शासन करने वाले विभिन्न राजवंशों के बारे में जानकारी प्रदान करें। जैसे:- बैराठ सांची, भरहुत आदि स्तूप से मौर्य वंश के बारे में तथा अमरावती स्तूप आदि से सातवाहनों के बारे में जानकारी मिलती है।
वास्तुकला के रूप में महत्त्व: सांची और भरहुत के स्तूप भारत की सबसे पुरानी पत्थर की संरचनाओं में से एक हैं। अमरावती स्तूप में संगमरमर का उपयोग किया गया है तथा तक्षशिला की खुदाई से बोधिसत्व छवियों, गांधार प्रभाव और कनिष्क के संरक्षण वाले स्तूपों का पता चलता है।
बुद्ध के समय भारतीय
उपमहाद्वीप में प्राचीन शिक्षा का बुनियादी ढाँचा
इस अवधि के दौरान ज्ञान की खोज हेतु ध्यान, बहस और विद्वानों के साथ चर्चा करने तथा भिक्षुओं और ननों के लिये कई मठ / विहार स्थापित किये गए थे। इन विहारों के आस-पास, उच्च शिक्षा के अन्य शैक्षिक केंद्र विकसित हुए, जिन्होंने चीन, कोरिया, तिब्बत, बर्मा, सीलोन, जावा, नेपाल और अन्य दूरस्थ देशों के छात्रों को आकर्षित किया।
विहार और विश्वविद्यालय: जातक कथाएँ, ह्वेनसांग और आई-किंग (चीनी विद्वानों) द्वारा दिये गए विवरण, साथ ही साथ अन्य स्रोतों से पता चलता है कि क्षेत्रीय राजाओं एवं समाज ने शिक्षा को बढ़ावा देने में सक्रिय भूमिका निभाई। परिणामस्वरूप कई प्रसिद्ध शैक्षिक केंद्र अस्तित्व में आए। इस अवधि के दौरान विकसित होने वाले सबसे उल्लेखनीय विश्वविद्यालयों में तक्षशिला, नालंदा, वल्लभी, विक्रमशिला, ओदंतपुरी (Odantapuri) और जगद्दला (Jagaddala) स्थित थे।
इन विश्वविद्यालयों का विकास विहारों के संयोजन में हुआ। जो बनारस, नवदीप और कांची में मंदिरों के संबंध में विकसित हुए और उन स्थानों पर सामुदायिक जीवन के केंद्र बन गए जहाँ वे अवस्थित थे।
इन विश्वविद्यालयों में दो प्रमुख थे-
तक्षशिला विश्वविद्यालय
प्राचीन काल में, तक्षशिला कई शताब्दियों तक बौद्ध धर्म की धार्मिक शिक्षाओं सहित शिक्षा का एक विख्यात केंद्र था। यह 5वीं शताब्दी ई. में अपने पतन तक दुनिया भर के छात्रों को आकर्षित करता रहा। यह उच्च शिक्षा के लिये प्रसिद्ध था और पाठ्यक्रम में प्राचीन शास्त्रों, कानून, चिकित्सा, खगोल विज्ञान, सैन्य विज्ञान और अठारह शिल्पों या कलाओं का अध्ययन शामिल था।
तक्षशिला अपने शिक्षकों की विशेषज्ञता के कारण सीखने की जगह के रूप में प्रसिद्ध हुई। इसके विख्यात व्यक्तियों में प्रसिद्ध भारतीय वैयाकरण, पाणिनि थे, वह भाषा और व्याकरण के विशेषज्ञ थे और व्याकरण पर ‘अष्टाध्यायी’ नामक सबसे महान कार्यों में से एक के लेखक थे।
- जीवक, प्राचीन भारत के सबसे प्रसिद्ध चिकित्सकों में से एक और चाणक्य (जिन्हें कौटिल्य के नाम से भी जाना जाता है), दोनों ने यहाँ अध्ययन किया था।
नालंदा विश्वविद्यालय
नालंदा विश्वविद्यालय में ह्वेनसांग ने योगशास्त्र का अध्ययन किया था। उसके विवरणों से ज्ञात होता है कि नालंदा के कुलाधिपति शीलभद्र योग के समकालिक सर्वोच्च अधिकारी थे।
नालंदा विश्वविद्यालय द्वारा प्रदान किये जाने वाले अध्ययन के पाठ्यक्रमों में एक विस्तृत श्रृंखला शामिल थी।
नालंदा के छात्रों को वेदों का अध्ययन, ललित कला, चिकित्सा, गणित, खगोल विज्ञान, राजनीति और युद्ध कला में प्रशिक्षित किया जाता था।
सामुदायिक भूमिका
उस समय, ज्ञान को पवित्र माना जाता था और कोई शुल्क नहीं लिया जाता था। शिक्षा के प्रति योगदान को दान का सर्वोच्च रूप माना जाता था। • समाज के सभी सदस्यों ने किसी-न-किसी रूप में योगदान दिया। धनी व्यापारियों, धनी परिवारों एवं समाज से वित्तीय सहायता मिली। साथ ही भवनों के उपहार के अलावा, विश्वविद्यालयों को भूमि उपहार स्वरूप मिली।
मुफ्त शिक्षा का यह रूप वल्लभी, विक्रमशिला और जगद्दाला जैसे अन्य प्राचीन विश्वविद्यालयों में भी प्रचलित था।
दक्षिण भारत में शिक्षा का तत्कालीन बुनियादी ढाँचा: घाटिका व ब्रह्मपुरी
दक्षिण भारत में, अग्रहारों (Agraharas) ने सीखने एवं सिखाने के केंद्रों के रूप में कार्य किया। दक्षिण भारतीय राज्यों में अन्य सांस्कृतिक संस्थान भी थे जिन्हें ‘घाटिका’ (Ghatika) और ‘ब्रह्मपुरी’ (Brahmapuri) के नाम से जाना जाता था।
घटिका धर्म सहित शिक्षा का एक केंद्र था और आकार में छोटा था।
अग्रहार (अर्थात विद्वान ब्राह्मणों का एक संपूर्ण व्यवस्थापन) एक बड़ी संस्था थी, जिसके पास अपनी आधिकारिक शक्तियाँ थीं और इसे समाज द्वारा दिये गए मुक्तहस्त दान द्वारा बनाए रखा जाता था।
अग्रहार और ब्रह्मपुरी दोनों ही ऐसे शैक्षिक केंद्र थे जहाँ ब्राह्मण शिक्षक जिन्हें महाजन कहा जाता था शिक्षा प्रदान करते थे। दक्षिण भारत में ब्रह्मपुरियाँ विद्वानों की बस्तियाँ कहलाती थीं।
इस अवधि के दौरान सीखने के अन्य स्रोतों के रूप में मंदिर, मठ, जैन बसादी (Jain Basadi) और बौद्ध विहार भी मौजूद थे।