वॉयस ऑफ ग्लोबल साउथ शिखर सम्मेलन (Voice of Global South Summit)

चर्चा में क्यों?

हाल ही में भारत द्वारा विश्व के विकासशील देशों को एक मंच पर साथ लाने के लिये ‘वॉयस ऑफ ग्लोबल साउथ’ (Voice of Global South) वर्चुअल शिखर सम्मेलन का आयोजन किया गया।

प्रमुख बिंदु

इस शिखर सम्मेलन के आयोजन का उद्देश्य G-20 समूह से बाहर के विकासशील देशों से परामर्श करते हुए उनकी विकासात्मक प्राथमिकताओं तथा G-20 की अध्यक्षता के दौरान भारत से उनकी अपेक्षाओं पर चर्चा करना था।

इस शिखर सम्मेलन में विश्व के 125 देशों के प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया, इसमें दक्षिण अमेरिका और कैरेबियन क्षेत्र से 29 देश, अफ्रीका महाद्वीप से 47 देश, एशिया से 31 देश, ओशिनिया क्षेत्र से 11 देश और यूरोप से 7 देश शामिल थे।

भारत ने ग्लोबल साउथ (Global South) के देशों के साथ सहयोग को बढ़ावा देने के लिये कई पहलों की घोषणा की।

भारत सरकार द्वारा घोषित पहल

आरोग्य मैत्री प्रोजेक्टः इस पहल के तहत भारत प्राकृतिक आपदाओं या मानवीय संकट से प्रभावित किसी भी विकासशील देश को आवश्यक चिकित्सा आपूर्ति प्रदान करेगा।

ग्लोबल साउथ साइंस एंड टेक्नोलॉजी इनिशिएटिवः विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भारत की विशेषज्ञता एवं अनुभवों को अन्य देशों के साथ साझा करने के लिये।

ग्लोबल साउथ सेंटर ऑफ एक्सीलेंस: यह संस्थान इनमें से किसी भी देश के विकास समाधानों या सर्वोत्तम प्रथाओं पर शोध करेगा, जिसे ग्लोबल साउथ के अन्य सदस्यों में बढ़ाया और कार्यान्वित किया जा सकता है।

ग्लोबल-साउथ यंग डिप्लोमैट्स फोरमः राजनयिक दृष्टिकोण में समन्वय एवं विदेश मंत्रालयों के युवा अधिकारियों को जोड़ने के लिये एक ग्लोबल-साउथ यंग डिप्लोमैट्स फोरम की स्थापना का प्रस्ताव किया गया।

ग्लोबल-साउथ स्कॉलरशिपः विकासशील देशों के छात्रों को भारत में उच्च शिक्षा प्राप्त करने में सहयोग करने के लिये।

ग्लोबल साउथ की प्रमुख समस्याएँ: वैश्विक प्रतिनिधित्वः ग्लोबल साउथ के अधिकांश देशों के अनुसार, द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद स्थापित वैश्विक प्रशासनिक व्यवस्था में उन्हें पर्याप्त प्रतिनिधित्व न मिलने के कारण इन संस्थानों द्वारा विकसित नीतियों में उनके विकास पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया।

वाह्य हस्तक्षेपः ग्लोबल साउथ के देश लंबे समय तक पश्चिमी देशों के उपनिवेश का हिस्सा रहे. परंतु इन देशों की स्वतंत्रता के बाद भी ग्लोबल साउथ के देशों में आर्थिक एवं सैन्य शक्ति से संपन्न पश्चिमी देशों के परोक्ष हस्तक्षेप ने इनकी संप्रभुता को सीमित करने के साथ ही इनमें राजनीतिक अस्थिरता को बढ़ावा दिया है।

संसाधनों का अभाव : ग्लोबल साउथ के देशों में वैश्विक स्तर हुए औद्योगिक विकास का अधिक लाभ देखने को नहीं मिला। वर्तमान में भी इन देशों में सड़क, बंदरगाह और ऊर्जा संसाधनों की कमी के अतिरिक्त आर्थिक असमानता एवं कुशल कामगारों का अभाव विदेशी निवेश को बढ़ावा देने में एक बड़ी बाधा खड़ी करता है।

क्या है ग्लोबल साउथ ?

शीतयुद्ध के दौरान अमेरिका व इसके समर्थक पश्चिमी देशों को ‘फर्स्ट वर्ल्ड’, सोवियत संघ को ‘सेकेंड वर्ल्ड’ और गुट निरपेक्ष समूह से जुड़े देशों को ‘थर्ड वर्ल्ड’ के नाम से संदर्भित किया जाता था।

संयुक्त राष्ट्र में ‘दक्षिण’ (South) का पहला संदर्भ 1960 के दशक में देखा जा सकता है। शीतयुद्ध के बाद इसके आगे ‘वैश्विक ‘ जोड़ा जाने लगा।

वैश्विक राजनीति में ‘ग्लोबल साउथ’ का उपयोग सामान्य रूप से तीन प्रकार के देशों/समूहों को संदर्भित करने के लिये किया जाता है।

पहला, ग्लोबल साउथ का उपयोग सामान्य तौर पर विश्व के गरीब और/या सामाजिक-आर्थिक रूप से हाशिए पर रहने वाले हिस्से के देशों को संदर्भित करने के लिये किया जाता है।

दूसरा, ‘ग्लोबल साउथ’ का उपयोग वर्ष 1955 के बांडुंग सम्मेलन, गुटनिरपेक्ष आंदोलन और संयुक्त राष्ट्र में G-77 के समूह जैसे बहुपक्षीय गुटों के सदस्य देशों के संदर्भ में किया जाता है, जो कि पूर्व की औपनिवेशिक शक्तियों के वर्चस्व वाले प्लेटफॉमों से हटकर सहयोग का एक नया तंत्र स्थापित करने का प्रयास करते हैं।

तीसरा, ग्लोबल साउथ’ को नवउदारवादी पूंजीवाद के खिलाफ प्रतिरोध के मंच के रूप में प्रस्तुत किया गया है।

महत्त्व

इस शिखर सम्मेलन के माध्यम से भारत ने यह स्पष्ट किया है कि वह परामर्शकारी एवं जन केंद्रित सिद्धांतों पर आधारित वैश्वीकरण का समर्थन करता है जहाँ सभी देशों की संप्रभुता का सम्मान किया जाता है।

भारतीय प्रधानमंत्री ने ग्लोबल साउथ के देशों से एकजुट होकर असमान ‘वैश्विक राजनीतिक और वित्तीय प्रशासन’ तंत्र को बदलने हेतु ‘प्रतिक्रिया (Respond), पहचान (Recognise), सम्मान (Respect) और सुधार (Reform)’ के सूत्र को अपनाने पर जोर दिया।

यह शिखर सम्मेलन भारत को ग्लोबल साउथ के देशों के साथ पुनः अपने संबंधों को मजबूत करने का अवसर प्रदान करता है. गौरतलब है कि पिछले तीन दशकों में भारतीय विदेश नीति मुख्य रूप से विश्व की महाशक्तियों के साथ अपने संबंधों को पुनर्व्यवस्थित करने, भारतीय उपमहाद्वीप में स्थिरता लाने और अपने विस्तारित पड़ोस में क्षेत्रीय संस्थानों को विकसित करने पर केंद्रित रही है।

चुनौतियाँ

गुटनिरपेक्ष आंदोलन और G-77 (ग्रुप ऑफ 77 ) में विकासशील देशों के साथ कार्य करने के दौरान भारत के लिये साझा लक्ष्यों के मुद्दे पर ग्लोबल साउथ के देशों को एकजुट करना सबसे बड़ी चुनौती रही थी। वर्तमान में विकासशील देशों के बीच गहराता राजनीतिक तथा आर्थिक भेदभाव इस चुनौती को और बढ़ा देता है।

शीतयुद्ध के बाद पश्चिमी देशों की ओर भारत का झुकाव बढ़ा है. ऐसे में वर्तमान में भारत के लिये ग्लोबल साउथ और पश्चिमी देशों के बीच संतुलन बनाना एक बड़ी चुनौती होगी। हाल के वर्षों में ग्लोबल साउथ के देशों चीन का बढ़ता हस्तक्षेप

भारत के लिये एक बड़ी चुनौती है, इन देशों में चीन के प्रभुत्व का मुकाबला करने के लिये भारत को आवश्यक धन जुटाने में कठिनाई का सामना करना पड़ सकता है।

आगे की राह

वर्ष 2030 तक भारत के विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था (वर्तमान के 5वें स्थान से) बनने का अनुमान है, साथ ही भारत G-7 जैसे विकसित देशों के समूहों में नियमित रूप से भाग लेता रहा है। दूसरी ओर भारत नियमित रूप से विकासशील देशों को आपदा राहत एवं आर्थिक सहयोग (जैसे- COVID-19 वैक्सीन, श्रीलंका, मालदीव के अतिरिक्त कई अफ्रीकी व एशियाई देशों को ऋण व अनुदान) प्रदान करता रहा है. वैश्विक स्तर पर भारत की यह पहुँच ही इसे विकासशील एवं विकसित देशों के बीच एक ब्रिज के रूप में कार्य करने की क्षमता प्रदान करती है।

भारत को इस तथ्य को भी ध्यान में रखना होगा कि वर्तमान में ग्लोबल साउथ का कोई साझा दृष्टिकोण नहीं है वित्तीय स्थिति, राजनीतिक शक्ति, आवश्यक जरूरतों और क्षमताओं के मामले में आज इन देशों में बहुत अंतर है। ऐसे में भारत को विकासशील विश्व के विभिन्न क्षेत्रों और समूहों के अनुरूप अलग नीति की आवश्यकता होगी।

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